कोलकाता की ऐतिहासिक ट्राम की रफ्तार अब मदम पड़ गई है, जो सघन यातायात के बीच ही यदा कदा दिख जाती है। इसके रखरखाव पर सरकार ज्यादा ध्यान नहीं देती। कई बार तो इसके देखने मात्र के लिए सियालदाह के पास बने ट्राम स्टेशन तक जाना पड़ता है। साल्ट लेक सिटी से करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित हावड़ा के रास्ते में शहर की असली तस्वीर देखती है। हावड़ा ब्रिज के झिलाऊ ट्रैफिक जाम को हुगली ब्रिज ने काफी हद तक कम कर दिया है। दो से तीन घंटे का हैवी ट्रैफिक जाम झेलने का समय होने पर ही अब हावड़ा ब्रिज से होकर जाने का साहस किया जाता है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने लंबे समय तक शासन किया, लेकिन राज्य की समस्या जस की तस है, हाइवे की जर्जर रास्ते और अधूरा निर्माण कार्य इस बात की गवाही दे रहे थे। इंडी स्मार्ट होटल से निकलने वक्त हमे बिहार के मधुबनी जिले के ड्राइवर शकील का साथ मिला, जो हिंदी और बंगला दोनों जानता था, एक पल को ऐसा लगा जैसे मन की मुराद पूरी हो गई है, शॉपिंग (गढ़िया घाट) और घुमने की औपचारिक बातों के बाद सिलसिला राजनीति का शुरू हुआ। बीते 12 साल से बंगाल में रहे रहे शकील को राज्य के लोगों की परेशानी की जैसे एक-एक नब्ज पता थी, छोटे उद्योगों का पलायन, नई कंपनियों का निवेश न होना और सरकार की टैक्स नीति के चलते बंगाली मानुष का मन अब टीएमके की ममता बनर्जी सरकार से उठ गया है। यही कारण था कि एक दिन पहले सुभाष पार्क में हुई मोदी की रैली में लोगों ने जमकर हिस्सा लिया, पता चला मोदी को यहां भी लोग हसरत भरी निगाहों से देखते हैं। हमारे साथ मौजूद यूनिसेफ की सोशियल पॉलिसी स्पेशलिस्ट स्वाति पंडित डे भी इस बात की सहमति दी कि ममता के शासन में तानाशाही बढ़ी लेकिन रोजगार नहीं बढ़े। हुगली ब्रिज के दो टोल पार कर हम रानीहाती पहुंचे, जहां से 20 किलोमीटर दूर हमें शाहपाड़ा गांव जाना था। कच्ची सड़क के बीच जगह-जगह बने पोखर दिख रहे थे, पता चला 70 हजार लोगों की आबादी वाले इस ब्लॉक में पांच हजार पोखर हैं। हमारे बिहारी ड्राइवर ने बताया कि पोखर बनाने के लिए लोग मिट्टी फ्री में देने को तैयार हो जाते हैं, पोखर प्रेम को नजदीक से समझने पर पता चला कि घर के बाहर बना यही पोखर नहाने, कपड़े धोने और पानी की अन्य दैनिक दिनचर्या पूरी करने के काम आता है। घर के हाते में बने पोखर में मछली पालना और उससे आजीविका चलाना अधिकांश लोगों का मुख्य साधन है। हालांकि कुछ समुदाय के लोगों ने मछली सुखाकर उसे बेचना शुरू किया है। प्रयास अच्छा था, पोखर की यही व्यवस्था पोलियो अभियान के लिए चुनौती बनी। पता यूनिसेफ के पश्चिम बंगाल के अधिकारी नासिर अतीक ने पोखर पर एक शोध भी किया है। खुले शौच समस्या तो यहां अब भी मौजूद हैं, पांचला ब्लाक में पोलियो का अखिरी केस दिखा, लेकिन यहां गांव के लोग अब भी पोलियो पर विश्वास नहीं करते। रूखसार के पिता अब्दुल प्रति पोलियो दिवस पर 200 रुपए लेते हैं। नानी बातों बातों में कहती है अब कोई पैसा देगा तब ही रूखसार इंटरव्यूह देगी। यहां जरूरत पैसे की है, कोई बीमारी जाएं या रहे इससे इन्हें कोई मतलब नहीं, इसी गांव के एक दम्पति ने अपनी चार वर्षीय को हिना को कभी एक भी पोलियो ड्राप नहीं दी। पता चला कि वह पैसे के बदले ही ड्राप देने को राजी होगें, ऐसी स्थिति में शबाना और कनीज जैसी पोलियो कार्यकत्रियों का काम और भी अहम हो जाता है। कच्चे रास्ते से गुजरते हुए नजर आईसीडीएस केन्द्र पर पड़ी, अंडा, दाल और खीर लेते बच्चे तो दिखे, लेकिन कंधे पर बस्ता नदारद था।
I am a heart core journalist. Some time things make me to ponder on the issue, when people dont get his of her right of health. food and ofcourse of shelter. Coverning health since 8 years some things that can not reflect my passion of writing in print media. That i want to put on this platform. hope i will be successfull in delivering my things in simple manner.
Saturday, 15 February 2014
challenge to sustain
कोलकाता की ऐतिहासिक ट्राम की रफ्तार अब मदम पड़ गई है, जो सघन यातायात के बीच ही यदा कदा दिख जाती है। इसके रखरखाव पर सरकार ज्यादा ध्यान नहीं देती। कई बार तो इसके देखने मात्र के लिए सियालदाह के पास बने ट्राम स्टेशन तक जाना पड़ता है। साल्ट लेक सिटी से करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित हावड़ा के रास्ते में शहर की असली तस्वीर देखती है। हावड़ा ब्रिज के झिलाऊ ट्रैफिक जाम को हुगली ब्रिज ने काफी हद तक कम कर दिया है। दो से तीन घंटे का हैवी ट्रैफिक जाम झेलने का समय होने पर ही अब हावड़ा ब्रिज से होकर जाने का साहस किया जाता है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने लंबे समय तक शासन किया, लेकिन राज्य की समस्या जस की तस है, हाइवे की जर्जर रास्ते और अधूरा निर्माण कार्य इस बात की गवाही दे रहे थे। इंडी स्मार्ट होटल से निकलने वक्त हमे बिहार के मधुबनी जिले के ड्राइवर शकील का साथ मिला, जो हिंदी और बंगला दोनों जानता था, एक पल को ऐसा लगा जैसे मन की मुराद पूरी हो गई है, शॉपिंग (गढ़िया घाट) और घुमने की औपचारिक बातों के बाद सिलसिला राजनीति का शुरू हुआ। बीते 12 साल से बंगाल में रहे रहे शकील को राज्य के लोगों की परेशानी की जैसे एक-एक नब्ज पता थी, छोटे उद्योगों का पलायन, नई कंपनियों का निवेश न होना और सरकार की टैक्स नीति के चलते बंगाली मानुष का मन अब टीएमके की ममता बनर्जी सरकार से उठ गया है। यही कारण था कि एक दिन पहले सुभाष पार्क में हुई मोदी की रैली में लोगों ने जमकर हिस्सा लिया, पता चला मोदी को यहां भी लोग हसरत भरी निगाहों से देखते हैं। हमारे साथ मौजूद यूनिसेफ की सोशियल पॉलिसी स्पेशलिस्ट स्वाति पंडित डे भी इस बात की सहमति दी कि ममता के शासन में तानाशाही बढ़ी लेकिन रोजगार नहीं बढ़े। हुगली ब्रिज के दो टोल पार कर हम रानीहाती पहुंचे, जहां से 20 किलोमीटर दूर हमें शाहपाड़ा गांव जाना था। कच्ची सड़क के बीच जगह-जगह बने पोखर दिख रहे थे, पता चला 70 हजार लोगों की आबादी वाले इस ब्लॉक में पांच हजार पोखर हैं। हमारे बिहारी ड्राइवर ने बताया कि पोखर बनाने के लिए लोग मिट्टी फ्री में देने को तैयार हो जाते हैं, पोखर प्रेम को नजदीक से समझने पर पता चला कि घर के बाहर बना यही पोखर नहाने, कपड़े धोने और पानी की अन्य दैनिक दिनचर्या पूरी करने के काम आता है। घर के हाते में बने पोखर में मछली पालना और उससे आजीविका चलाना अधिकांश लोगों का मुख्य साधन है। हालांकि कुछ समुदाय के लोगों ने मछली सुखाकर उसे बेचना शुरू किया है। प्रयास अच्छा था, पोखर की यही व्यवस्था पोलियो अभियान के लिए चुनौती बनी। पता यूनिसेफ के पश्चिम बंगाल के अधिकारी नासिर अतीक ने पोखर पर एक शोध भी किया है। खुले शौच समस्या तो यहां अब भी मौजूद हैं, पांचला ब्लाक में पोलियो का अखिरी केस दिखा, लेकिन यहां गांव के लोग अब भी पोलियो पर विश्वास नहीं करते। रूखसार के पिता अब्दुल प्रति पोलियो दिवस पर 200 रुपए लेते हैं। नानी बातों बातों में कहती है अब कोई पैसा देगा तब ही रूखसार इंटरव्यूह देगी। यहां जरूरत पैसे की है, कोई बीमारी जाएं या रहे इससे इन्हें कोई मतलब नहीं, इसी गांव के एक दम्पति ने अपनी चार वर्षीय को हिना को कभी एक भी पोलियो ड्राप नहीं दी। पता चला कि वह पैसे के बदले ही ड्राप देने को राजी होगें, ऐसी स्थिति में शबाना और कनीज जैसी पोलियो कार्यकत्रियों का काम और भी अहम हो जाता है। कच्चे रास्ते से गुजरते हुए नजर आईसीडीएस केन्द्र पर पड़ी, अंडा, दाल और खीर लेते बच्चे तो दिखे, लेकिन कंधे पर बस्ता नदारद था।
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