सर, अाँख, मुँह और पैर में बंधी पट्टी,, कुछ इस तरह कि तस्वीर भी महिला आज़ादी की कहानी कह सकती है, सामान्य रूप में देखे तोह शायद न समझ आए,, लेकिन आत्म रक्षा, स्वबलम्ब और निर्भीकता,, इसकी मिसाल है बिहार के गया गाँव कि कुछ महिलाये,, पाँच से दस मिनट का यह नुक्कड़ नाटक बेहद सटीक सन्देश देता है, सर पैर बंधा कपडा हटा मतलब दिमाग खुला, दिमाग खुलने का मतलब चीज़ो को देखने का नज़रिया बदला देखने का नजरिया बदला तोह मतलब आँख से पट्टी हटी,, जब चीज़े व्यापक दिखी तोह मतलब बोले कि शक्ति आई,, बोलने से साथ ही कदम बहार निकले,, बीते एक साल से जरी इस मुहीम का करवा अब बढ़ रहा है,, शहरी महिला कि आज़ादी ग्रामीण महिला से आज भी कई मायने में अलग है घर कि चार दिवारी से निकल कर कुछ करने से पहले बगावत करनी पड़ती है, खगड़िया विलेज कुछ ऐसे ही महिलाये सबके लिए मिसाल बनी, वोह न सिर्फ़ गाँव से बाहर निकली बल्कि आठ महिलाओ के एक दल ने अमेरिका जाकर नारी शक्ति में देश का प्रतिनितित्व किया,,नुक्कड़ नाटक के जरिये अपने अधिकार के लिए जागरूक होती इन महिलाओ कि मदद किसी सरकारी एजेंसी या पुलिस ने नहीं कि, घरो में चूल्हा जलने तक सीमित इनकी दिनचर्या में अब समूह कि मीटिंग और चर्चाये भी शामिल हो गयी है, इस गाँव के कच्चे घर में,, सलीके से रखी चीजे और प्रौढ़ शिक्षा कि किताबे,, एक बात और केवल पढ़ी ही नहीं सफाई की अहमियत भी अब समझी जाने लगी है. इसी गाँव कि नाज़नीन ने ससुराल में जाकर बीए पास किया अब पति के मदद से बैंक में सर्विस कि तैयारी कर रही है। अच्छा लगा देख कर महिलाये हर स्तर खुद को साबित करने कि कोशिश कर रही है, नारी अधिकार और आज़ादी कि अगर बात करे तोह सेहर में डगर आसान है पर बिना संसाधन के आगे बढ़ना तारीफे काबिल है,,, शिक्षा ही नहीं स्वयंसहायता समूह घरेलू काम से आमदनी का जुगाड़ भी कर रहा है, पापड़ बनाना, अगरबत्ती और टूशन आदि कम से आमदनी बढ़ी है,, आर्थिक मज़बूती बिना आज़ादी के मायने अधूरे है,,
I am a heart core journalist. Some time things make me to ponder on the issue, when people dont get his of her right of health. food and ofcourse of shelter. Coverning health since 8 years some things that can not reflect my passion of writing in print media. That i want to put on this platform. hope i will be successfull in delivering my things in simple manner.
Saturday, 16 November 2013
Saturday, 21 September 2013
Time to prove saffron
किसी भी व्यक्ति विशेष पर विरोधी टिप्पणी कर फेसबुक पर समर्थक जुटाते लोग दिखते है बहुत आसान है ऐसा कुछ लिख कर १०० से २०० लाइक मिलना भी बेहद आसान है सदियों से ऐसे ही परंपरा चल रही है गुजरात दंगे हो या फिर मुज्जफ्फर्नगर की हिसा यहाँ केवल इंसानियत ही कुचली गयी. कभी हिन्दू तोह कभी मुस्लिम के रूप में. परिणाम गया राजनेताओ के हिस्से। सोशल मीडिया के इस युग में कौन इन बातो पर विश्वास करेगा की हिन्दुओ को मुस्लिम ने मारा और मुस्लिमो को हिन्दुओ ने. लेकिन अपने बहुचर्चित नेताओ को यह बात हज़म नहीं हो रही थी तब ही कुछ ऐसे महापंचायत आयोजित की गयी जहा भडकाऊ भाषन देकर लोगो को बरगलाया गया. सरे आम अवैध हथियार लहराए गये. प्रशाशन की मौजूदगी में. कमी कहा पूछो कोई क्यों नहीं रोक उस पंचायत को. जबकि पहले ही मुज्ज़फर्नगर प्रेमी युगल के मामले में भड़क चूका था प्रशासन को डर था पंचायत नहीं हुई तोह बड़ा वोट बैंक नाराज़ होगा। फिर अनुमति दी भी तोह लाव लश्कर के साथ क्यों। जहा की हिंसा भड़काने को नेता भी मौजूद थे मीडिया के दवाब देने पैर दो नेताओ की गिरफ़्तारी भी हुई लेकिन ४० लोगो की मौत किस नेता के हिस्से जाएगी। खून हिन्दुओ का भी बहा मुसलमानों का भी. फिर भी बीजेपी के नेता गलती मनाने को तैयार नहि. इसपर उमा भारती का बयान की अपने नेता को बहाएगी महोदय यह किस तरह की राजनीति कर रही है वोह दिन गये जब लोग भगवा रंग देखकर केवल सच झूठ का अंदाजा लगते थी. दागी नेताओ को पल्लू में छिपाने की राजनीती अब नहीं होगी जो गलत है स्वीकार करना होगा तब ही जनता जनार्दन के बीच पार्टी की इज्ज़त और साख बचाई जा सकती है.
Saturday, 17 August 2013
it was not to quit
रोज सुबह की तरह आज भी पेपरवाले के अख़बार फेकने से आँख खुली हर सुबह यह कुछ कुछ घडी के अलार्म का काम करता है, एक दिन पहले की मेहनत को अख़बार ने किस तरह तौल यह भी सुबह ही पता चलता है, लेकिन उस रोज वोह भाव नदारद था, चाय पीने के आधे घंटे बाद भी अखबार वही पड़ा था, वोह इसलिए की एक दिन पहले जो ऑफिस में हुआ उसके बाद पत्रकारिता के मायने ही बदल गए, एक निजी पुष्पांजलि अस्पताल की खबर पर नोटिस आया यह नयी बात नहीं थी नोटिस आना इस बात का भी प्रमाण है की रिपोर्टर काम कर रहा है, बात ऑफिस के मतहतो तक पहुची, तथ्य मज़बूत थी इसलिए आत्मविश्वास तनिक भी नहीं डगमगाया, कहा गया नोटिस का जवाब देना है या फिर केस लड़ना है. अपने स्तर पर तैयारी पूरी थी, पक्ष अधिक मज़बूत करने के लिए मरीज की आवाज़ की रिकॉर्डिंग भी सुरक्षित रख ली, शाम पांच बजे तक जवाब देना था, कंपनी का वकील लगातार सामने वाले की तरफदारी कर रहा था मानों हमारी कंपनी से नहीं विरोधी पक्ष से वेतन मिलता है. लगातार एक घंटे की बात के बाद निर्णय लिया केस लड़ा जायेगा अच्छा लगा जानकर की सस्थान आप पर विश्वास करता है, एक दिन बाद फिर बुलाया गया लगा कुछ दस्तावेज और चाहिए, लेकिन इस बार सरेंडर करने को बुलाया गया. मन की अंतर्वेदना खाए जा रही थी तीन बातो पर स्पस्टीकरण जाना था जो गलत थी, नोटिस भेजने वाला संसथान की कमजोरी को समझ चूका था, लगा तीन लाइन स्पस्टीकरण के लिखने की जगह रिजाइन लिख दो, लेकिन ऐसा नहीं हुआ बॉस के कहे अनुसार चार लाइन लिखी गयी और अगले दिन छपी भी वोह नहीं जो बल्कि वोह जो लिखाया गया. एक पल में अपनी हकीकत सामने आ गयी. मन हतोसाहित हुआ. लेकिन यह अंत नहीं था जो देखना था अभी छोड़ दिया गया तोह ऐसी कई हकीकत नहीं दिख पायेगी। अख़बार ने सच के साथ में साथ नहीं दिया। लेकिन सही को सही साबित करने की एक मुहीम अभी भी जारी है एक पत्रकार की हैसियत से नहीं एक आम इन्सान की हैसियत से, अस्पताल के खिलाफ देहली मेडिकल कौंसिल में मामला दर्ज कराया गया, मरीजो के मेडिकल बीमा राशी का इस्तेमाल कर बीमार छोड़ने वाले अस्पतालों के खिलाफ रिट दाखिल की गयी उम्मीद है फैसला हक में होगा, एक पत्रकार की हैसियत से नहीं यह जीत एक आम इन्सान की होगी,
Friday, 12 July 2013
woh hari ghass ki mala
चेन्नई अपने आप में बहुत खूबसूरत शहर है, भगवान् शिव के पुत्र कार्तिक की पूजा स्थली, यहाँ हर मंदिर में भगवान् शिव की मोर के रूप में पूजा होती है, कहावत है की माँ पार्वती ने यहाँ शिव की इसी रूप में पूजा की थी। कपालेश्वर मंदिर कुछ प्रमुख मंदिरों में एक है, खैर इस शहर की एक परंपरा ने मुझे बेहद आकर्षित किया, यहाँ सब बहुत प्रोफेशनल है, यहाँ की पूजा की एक परंपरा के अनुसार भगवन गणपति की पूजा के लिए रोजाना हरी घास और धान चढ़ाया जाता है, इसी क्रम में जब मंदिर के बाहर बैठी महिला से बात हुई तोह उसने अपनी भाषा में कुछ कहा, दस मिनट का समय बिता कर जब हम चलने लगे तोह बताने के एवज में पैसे मांगने लगी, बॉस बात में तोह दम था, हम बेवजह किसी से भी युही जानकारिया झटक लेते है, जिसमे हमारा तोह हित होता है पर सामने वाले का क्या, पहली बार पता चला इसकी भी कीमत है, खैर मत जी से दो प्यार के बोल कह कर हम आगे चल दियॆ, लेकिन सोचना बनता था की आखिर बेवजह किसी को समय क्यों दिया जाये, शायद इसीलिए इस शहर ने इतनी तररकी की,.माता जी को समझा कर हमने गुड की खीर का प्रसाद खाया और सटक लिए।।
Wednesday, 24 April 2013
udaipur
पत्रकारिता में रहते हुए मुझे शहर और गाव दोनों देखने का मौका मिला लेकिन शुरू से ही गाओं की दिनचर्या ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया शायद इसलिए की कभी गाव को नजदीक से नहीं देखा था, यूनिसेफ के एक कार्यकर्म के दौरान उदयपुर और जोधपुर जाने का मौका मिला, राजस्थान की अरावली पहाडियों का जितना खूबसूरत नज़ारा यहाँ से दिखाई देता है शायद ही राजस्थान के किसी और जिले में ऐसा नज़ारा हो
मुख्य शहर से बीस किलोमीटर की दूरी पर ही सच्चाई पता चल जाती है। गुजरात की सीमा से लगे उदयपुर के खेरवाडा पंचायत अनुशुचित जाती और जनजाति के लोगो की करीब पचास हज़ार लोगो की आबादी है इस आबादी का पेट गुजरात से सत एक शहर हिम्मतनगर पाल रहा है राजस्थान के इस गो में बिजली की भी सुविधा नहीं है पहाडियों के ऊपर पोल नहीं पहुचाये जाते कहा जाता है की इसका पैसा सरकार हमे नहीं देती बिजली चहिये तोह लेबर का पैसा दो। कुछ तो गोव छोड़कर चले गए कुछ लोग बिना बिजली पानी के यहाँ रहने को मजबूर है, इस इलाके के ही कुछ लोग बी टी कॉटन की खेती भी कर लेते है। मोदी और राजस्थान की सरकार हालाकि बाल मजदूरी पर प्रतिबन्ध लगाने के बात कहती है लेकिन राजस्थान और गुजरात के इस बॉर्डर पर खूब बाल मजदूर काम करते है, दरसअल बी टी कॉटन का काम परगन को एक फूल से दूसरे फूल में डालने का होता है यदि कोई व्यस्क इस काम को करता है तोह उसकी कमर झुक जाती है इसलिए इस काम के लिए विशेष रूप से बच्चो का इस्तेमाल होता है, गुजरात से उदयपुर सीमा के रास्ते से यहाँ बच्चो से बाल मजदूरी कराइ जाती है परगन जैसे मेहनत भरे काम के एवज में सिर्फ ३० रुपए मिलते है। ऐसे किस राज्य की सरकार को जनता का हितैषी कहा जाये,, शायद बच्चो वोट बैंक नहीं है इसलिए यह बेरूखी है।
ARE WE DOING RIGHT?
महिला अधिकरो पर बात करते ही जेहन में एक ही सवाल उठता है , यह आवाज यह धरना और यह विरोध तोह ठीक है लेकिन पर्दे के पीछे का एक सच और भी है, यह नहीं कहूगी की महिलाये कानून का गलत इस्तेमाल करती है या फिर पुरुष उत्पीडन के शिकार हो रहे है। डर आने वाले कल की उस हकीकत का जिस पर आज धयान नहीं दिया जा रहा, आज ऑफिस में चर्चा हुई बलात्कार और वेश्यावृति की, दोनों अलग अलग बाते है क्या सच में अलग है,, गाँधी नगर बलात्कार मामले के ठीक एक दिन पहले नानकपुरा में एक नेपाली लड़की ने बलात्कार हुआ यह कहा पुलिस की थ्योरी में हलाकि शुरुआत में बलात्कार की पुष्ठी नहीं हुई लेकिन लड़की के आरोप ने मीडिया में खूब जगह बटोरी,,, अगले दिन ५ साल की मासूम के साथ दो लोगो ने बर्बर तरीके से बलात्कार किया,, घटनाये दोनों एक से है लेकिन एक फर्क है,,, नेपाली लड़की का आरोप था जिसे बाद में सही नहीं माना गया, डर इस बात का ही है की कही ऐसा समय न आ जाये जब की झूठे और इरादतन आरोप में असल बलात्कार भी न छिप जाये,, निश्चित रूप से समाज में बलात्कार की घटनाये बढ़ने के साथ ही वेश्यावृति भी बढ़ी है लेकिन भविष्य में महिलाओ सुरक्षा के लिए एक मजबूत कानून बनाने के लिए यह जरूरी है की इन बलात्कार और वेश्यावृति के बीच के इस फर्क को मिटने न दिया जाये,,
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